अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ SECRETS

अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ Secrets

अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ Secrets

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कॉमन वेल्थ खेलों में दीपिका कुमारी को मिली सफलता उत्साहवर्द्धक थी।

वो बहुत घबराया हुआ है कि अगर वो पल भर को भी रुक गया तो नर्क उसे गिरफ़्त में ले लेगा। तो वो रुकना नहीं चाहता, बस भागना चाहता है, एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल, एक चौराहे से दूसरे चौराहे। उससे पूछो, “जीवन किसलिए है?”

और जबड़ा टूट जाएगा तब कहोगे, “हाय! हाय! इससे ज़्यादा अच्छा तो ये था कि शनिवार की रात दारु ही पी लेते और चिकन ही खा लेते।”

तो कहेगा, “जीवन उपलब्धियों के लिए है, जीवन इसलिए है कि कुछ-न-कुछ हासिल करते रहो।”

मिली थी परंतु उस अनुपात में पैसा नहीं मिला। धनराज पिल्लै अपवाद नहीं है। हमारे

जाने वाली जूनियर राष्ट्रीय हॉकी खेलने का अवसर मिला। उस समय धनराज सोलह वर्ष के

बचेंगे नहीं अब।" अरे, ‘कै’ हट रहा था, ‘मैं’ थोड़े ही हट रहा था।

दूसरा प्रश्न ये है कि ये जो प्रार्थना की बात आती है, तो ये प्रार्थना जाती कहाँ है और काम कैसे करती है? किसके पास जाती है?

प्र: तो क्या इसीलिए धार्मिक ग्रंथों में ये वर्णित है कि मैं आत्मा हूँ?

आप आपसे बहुत ज़्यादा बड़े हैं। आप अहंकार भी हैं, आत्मा भी हैं। अहंकार इत्तु! (उंगलियों द्वारा छोटा सा आकार बताते हुए) आत्मा…!

वास्तव में अंजाम बाद में भी नहीं आता, उनकी ज़िन्दगी तब भी तबाह होती है जब वो तुम्हारे सामने ‘कूल डूड' बनकर घूम रहे होते हैं। उनकी ज़िन्दगी तब भी तबाह ही होती है। बस तुम्हारे सामने एक प्रकार का स्वांग रचा जाता है। तुम्हे धोखा देने के लिए एक नाटक किया जाता है।

अब उसे यक़ीन हो गया है कि वो ‘मैं’ है। उसे दिक़्क़त भी बहुत है अपने-आपसे। उसका नाम ही दिक़्क़त है। अगर दिक़्क़त मिटी तो कौन मिटेगा? वो मिटेगा, और उसका नाम है ‘मैं’। अगर वो मिटा तो फिर ‘मैं’ ही मिट जाएगा। ‘मैं’ माने हस्ती, ‘मैं’ माने होना। तो कहेगा, "फ़िर दिक़्क़त मिटाकर क्या फायदा अगर कोई बचेगा ही नहीं?"

आचार्य: मेरे पास कोई जवाब नहीं है। तुम शुरुआत ही यहाँ से करोगी कि “मैं मजबूर हूँ”, तो मैं आगे कोई जवाब नहीं दे पाऊँगा। शुरुआत ही झूठ है, मजबूर तुम हो ही नहीं। तुम शुरुआत में ही कहते हो कि, “हमसे कुछ अहंकार की क्षणिक प्रकृति: विनम्रता का एक पाठ अपेक्षाएँ रखी जाती हैं, हमें ये आवश्यक रूप से करना होता है अपनी कॉर्पोरेट जॉब में।" मैं इस बात को मानता होता तो तुम्हारे सामने बैठा होता? मैं भी गूगल में बैठा होता।

‘मैं’ के साथ दिक़्क़त ये है कि वो ख़ुद ही दिक़्क़त है। दिक़्क़त हटी तो ‘मैं’ भी हटेगा। अब ‘मैं’ कहता है “हम फिर दिक़्क़त हटाएँ क्यों अगर दिक़्क़त के हटने के साथ हम भी मिट जाएँगे तो?”

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